अनजाने थे हम दोनों, एक नई मोड़ पर
न तेरा कुछ बहारा था न मेरा कुछ सहारा था
आए थे अखबार बनकर, इस नेत्र-ए-अंजुमन में
न आगे कोई किनारा था न पीछे कोई किनारा था
शनै:-शनै: प्रविष्ठ हुए जब अल्फाजों की दुनियां में
अश्फाक से अव्वल रहे, मित्रता की राहों में
अभी तो शुरूआत थी चलना भी अनन्त तक था
लेकिन हुआ ऐसा भूल भुलैया भटकने लगा चौराहों में
बन गया मैं भ्रमित पंछी,
तरु दोस्ती का महफूज समझा
उखड़ गया वो तेरी भावनाओं की आंधियों में
जिसको मैंने मूल से मजबूत समझा
धूल भरके चक्षुओं में, स्वप्नों को संजोता रहा
बिना शूलों की परवाह किए, लड़खड़ाकर चलता रहा
अभी तक अनजान हूं तेरी आन्तरिक उक्तियों से
फिर भी तेरे कन्धों से कन्धा मिलाता रहा।
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