आज मेरे दिल की फ़िजाओं का रुख कुछ ऐसा है,
पानी पर शब्दों को तराशने जैसा है।
बहती समीर भी अब ठहरी हुई है,
वो कान्हा की बंसी भी मूक हो मुड़ी हुई है।
सूरज की रश्मियां भी पात पे गिरकर ठहर जा रहीं हैं,
वो वाचाल कतार भी टूटी हुई सी है।
ललाट उठाकर देखा तो पृष्ठ दिखा उस पंखु का,
जो कल मेरी कलियों के आंचल में सो रहा था।
-mksharma
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