जीवन में कभी कभी कुछ ऐसे भी मोड़ आ जाते हैं जहाँ से गुज़रना आग के अंगारों में चलने जैसा होता है चूंकि वो अंगारे किसी अपने ही मित्र या फिर विश्वास पात्र की देन होती है फिर भी गुज़ारना पड़ता है।
एक शूल ऐसा लगा उर में
लहू फिर भी निकल न सका
ज्वाला बुझ गयी ,व्यथा बन गयी
मोम का था मैं फिर भी पिघल न सका
बैठ जाता हूँ अक्सर उस आना के किनारे ,
पीर की गहराइयों की माप के लिए
लहरों की हलचलें अब थमती नहीं
सिमट जाता हूँ अज्ञात ज्वार से उस संताप के लिए।
एक शूल ऐसा लगा उर में
लहू फिर भी निकल न सका
ज्वाला बुझ गयी ,व्यथा बन गयी
मोम का था मैं फिर भी पिघल न सका
बैठ जाता हूँ अक्सर उस आना के किनारे ,
पीर की गहराइयों की माप के लिए
लहरों की हलचलें अब थमती नहीं
सिमट जाता हूँ अज्ञात ज्वार से उस संताप के लिए।
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