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Friday, 26 October 2018

एक दास्तां

एक दास्ताँ :-
                                                 

' दर्द अपना कलम , रोया जब 
एक कागज़ के सीने में 
बयाँ  की वो दास्ताँ  जो 
थी घुट - घुट के जीने में '

' गलत नहीं थे हम भी 
बस शब्दों की बस्ती वीरान थी 
समय उसका था शायद 
तभी कुदरत भी मेहरबान थी '

' मुन्तज़िर बना दिया मुझे 
अपनी कँटीली राहों  का 
ख़ैरियत  नहीं मुझे अब 
उसकी रुसवाई  पनाहों का '

' शहर छोड़ गए वो लेकिन 
मयखाना मेरे साथ रहा 
वो रुख़  मोड़ गए लेकिन 
याराना मेरे साथ रहा '

' साज़िशें हैं हर रोज़ आफ़ताब डुबाने की 
मेरा ताअल्लुक़ तो अब शाम से है 
दूरियां तो उनसे बढ़ गयीं हैं 
इश्क़ तो अब ज़ाम से है' 


                                                 - नूतनपथ 
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