एक दास्ताँ :-
' दर्द अपना कलम , रोया जब
एक कागज़ के सीने में
बयाँ की वो दास्ताँ जो
थी घुट - घुट के जीने में '
' गलत नहीं थे हम भी
बस शब्दों की बस्ती वीरान थी
समय उसका था शायद
तभी कुदरत भी मेहरबान थी '
' मुन्तज़िर बना दिया मुझे
अपनी कँटीली राहों का
ख़ैरियत नहीं मुझे अब
उसकी रुसवाई पनाहों का '
' शहर छोड़ गए वो लेकिन
मयखाना मेरे साथ रहा
वो रुख़ मोड़ गए लेकिन
याराना मेरे साथ रहा '
' साज़िशें हैं हर रोज़ आफ़ताब डुबाने की
मेरा ताअल्लुक़ तो अब शाम से है
दूरियां तो उनसे बढ़ गयीं हैं
इश्क़ तो अब ज़ाम से है'
- नूतनपथ
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Nice keep it up
ReplyDeletethank you bhaiya
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