इस मृत्युलोक में मानव का सबसे विराट वहम यह है कि वह जो देख रहा उन सब चीजों का मालिक बनना चाहता है और वो भी सदा के लिए। मन में एक लालसा बनी रहती है कि ऐसा होना चाहिए वैसा होना चाहिए, दुनिया के अनेक प्रलोभनों में फंस जाता है और खुद को कामयाब और कर्मठ बताता है क्योंकि उसने विलासता और तात्क्षणिक कामयाबियों का मार्ग जो खोज निकाला है, सामाजिक और राजनैतिक स्पर्धाओं को लक्ष्य समझने लगता है, उसे यही लगता है की अंततोगत्वा इसी कार्य के लिए प्रकृति ने उसे बनाया है। लेकिन उसे यह कौन बताए कि समय रूपी एक और राशि इस प्रकृति में विद्यमान है जो कभी नष्ट नहीं हो सकती और मनुष्य यह भूल जाता है कि वह समय रूपी आलय का कुछ ही वर्षों का मेहमान है। बाहर की खींचा तानी में वो इतना उलझ जाता है कि अपने अस्तित्व के मुख्य उद्देश्य से ओझल हो जाता है। उसे चाहिए की अंदर उठ रहे तूफान को शांत करके, भीतर बसे हुए अंधेरे को हटाना चाहिए। अंधेरे से मेरा तात्पर्य है की उसे वास्तविकता को पहचानना चाहिए। उसे अपने भीतर से ज्यादा बाहरी दिखावटी दुनिया की परवाह होती है जोकि कुछ समय बाद नष्ट होने वाली है। जिसका पता है की वह नाशवान है उसके स्थायित्व का कुछ पता नहीं तो फिर ये मूल्यवान जीवन उसके पीछे क्यों लगाना? बुद्ध ने दुनिया से पहले खुद को जाना तभी आज इतने वर्षों बाद वो महात्मा बुद्ध हैं और आप उनका ये नाम जानते हैं। अन्यथा कितने ही मानव जन्म लेते है और मर जाते है कुछ दशकों बाद उनकी आगामी पीढ़ियां भी उन्हें नहीं जानती तो और लोग क्या जानेंगे?
मानव अंधेरे में खुद को तीस मार खां समझ बैठता है कि वह कितने ही आकाश गंगाओं को जीत लेगा क्षण भर में ही। लेकिन वह खुदको कभी जीत नहीं पाता न ही खुदके भीतर छुपे हुए अंधकार को। हवाई किले बनाने में मानव ने PhD कर ली है और वह उसी आभासी दुनिया का मालिक बना बैठा है कल क्या होगा उसे भी पता नहीं लेकिन क्षणिक कामयाबी और अहंकार की दिशा में तेली का बैल बना फिरता है। उसे चाहिए कि वो बाहरी और भीतरी दुनिया के मध्य अंतर करे, बाहर की दुनिया के बजाय भीतर की दुनिया को धैर्यपूर्वक टटोले। क्योंकि बाहर की दुनिया को आप बदल नहीं सकते लेकिन आप स्वयं को तराश सकते हो और खुद को "मानव" बना सकते हो।
- मयंक शर्मा